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Friday, March 27, 2009
Aah ko Chahiye
Kaun jeeta hai tere zulf ke sar hone tak
Daam har mauj mein hai halqa-e-sad-kaam-e-nahang
Dekhayein kya guzre hai qatre pe guhar hone tak
Aashiqi sabar talab aur tamanna betaab
Dil ka kya rang karun khoon-e-jigar hone tak
Hum ne maana ke taghaful na karoge lekin
Khaak ho jaayenge hum tumko khabar hone tak
Partav-e-khur se hai shabnam ko fanaa ki taaleem
Main bhi hun ik inaayat ki nazar hone tak
Yak nazar besh nahi fursat-e-hasti ghaafil
Garmi-e-bazm hai ik raqs-e-sharar hone tak
Gam-e-hastee ka Asad kis se ho juz marg ilaaz
Shamaa har rang mein jalti hai sehar hone tak
Tuesday, July 1, 2008
यह न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए यार होता
यह न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए यार होता
अगर और जीते रह्ते यिही इन्तिज़ार होता
तिरे व`दे पर जिये हम तो यह जान झूट जाना
कि ख़्वुशी से मर न जाते अगर इ`तिबार होता
तिरी नाज़ुकी से जाना कि बंधा था `अह्द बोदा
कभी तू न तोड़ सक्ता अगर उस्तुवार होता
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए नीम-कश को
यह ख़लिश कहां से होती जो जिगर के पार होता
यह कहां की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासिह
कोई चारह-साज़ होता कोई ग़म्गुसार होता
रग-ए सन्ग से टपक्ता वह लहू कि फिर न थम्ता
जिसे ग़म समझ रहे हो यह अगर शरार होता
ग़म अगर्चिह जां-गुसिल है पह कहां बचें कि दिल है
ग़म-ए `इश्क़ अगर न होता ग़म-ए रोज़्गार होता
कहूं किस से मैं कि क्या है शब-ए ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मर्ना अगर एक बार होता
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूं न ग़र्क़-ए दर्या
न कभी जनाज़ह उठ्ता न कहीं मज़ार होता
उसे कौन देख सक्ता कि यगानह है वह यक्ता
जो दूई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता
यह मसाइल-ए तसव्वुफ़ यह तिरा बयान ग़ालिब
तुझे हम वली समझ्ते जो न बादह-ख़्वार होता
Sunday, May 25, 2008
दिल-ए नादां तुझे हुआ क्या है
अख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम हैं मुश्ताक़ और वह बेज़ार
या इलाही यह माज्रा क्या है
मैं भी मुंह में ज़बान रख्ता हूं
काश पूछो कि मुद्द`आ क्या है
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर यह हन्गामह अय ख़ुदा क्या है
यह परी-चह्रह लोग कैसे हैं
ग़म्ज़ह-ओ-`इश्वह-ओ-अदा क्या है
शिकन-ए ज़ुल्फ़-ए अन्बरीं क्यूं है
निगह-ए चश्म-ए सुर्मह-सा क्या है
सब्ज़ह-ओ-गुल कहां से आए हैं
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जान्ते वफ़ा क्या है
हां भला कर तिरा भला होगा
और दर्वेश की सदा क्या है
जान तुम पर निसार कर्ता हूं
मैं नहीं जान्ता दु`आ क्या है
मैं ने माना कि कुछ नहीं ग़ालिब
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है
Monday, December 17, 2007
रोने से और् इश्क़ में बेबाक हो गए
धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए
सर्फ़-ए-बहा-ए-मै हुए आलात-ए-मैकशी
थे ये ही दो हिसाब सो यों पाक हो गए
रुसवा-ए-दहर गो हुए आवार्गी से तुम
बारे तबीयतों के तो चालाक हो गए
कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल को बेअसर
पर्दे में गुल के लाख जिगर चाक हो गए
पूछे है क्या वजूद-ओ-अदम अहल-ए-शौक़ का
आप अपनी आग से ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए
करने गये थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला
की एक् ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए
इस रंग से उठाई कल उस ने 'असद' की नाश
दुश्मन भी जिस को देख के ग़मनाक हो गए
Saturday, January 6, 2007
हर एक बात पे कहते हो
तुम ही कहो कि ये अंदाज़-ए-ग़ुफ़्तगू क्या है?
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है?
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है?
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा,
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है?
रही ना ताक़त-ए-गुफ़्तार और हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है?
उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पे रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।
देखिए पाते हैं उशशाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
इक बराह्मन ने कहा है कि ये साल अच्छा है।
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीकत लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है।